जब लगभग तीन-चार वर्ष पूर्व अतुल कुमार राय ने अपने फेसबुक सन्देशों के माध्यम से मंटुआ और पिंकिया से अपने मित्रों को परिचित करवाना प्रारम्भ किया, तो उस समय पर लगा नहीं था कि अतुल इतनी गम्भीर और सारपूर्ण रचना हमें देंगे! परन्तु ‘चाँदपुर की चंदा’ पढ़ कर लगा कि हम अतुल को कम करके आँक रहे थे, अंग्रेजी में बोले तो, ‘अंडरएस्टीमेट’ कर रहे थे।

इसलिए नहीं कि कोई बहुत सशक्त प्रेम-कथा हमें पढ़ने को मिली है, हालांकि जिस कहानी में नायक-नायिका मिल जाएं, उसे सशक्त प्रेम-कथा कहना तो वैसे भी ज़माने का दस्तूर नहीं रहा है। लेकिन कठिन परिस्थितियों के बीच से शशि और चंदा के निश्छल प्रेम की नाव को खे कर ले जाती हुई इस प्रेम-कथा की असली शक्ति यह है कि यह उस अंचल की प्रचलित धारा से बिल्कुल अलग ही एक धारा में बहती है, जिस स्थान की यह कहानी है।
इस पुस्तक में मुझे महत्वपूर्ण वह नहीं लगा, जो अतुल ने लिखा; अधिक महत्वपूर्ण वह है, जिसके लिखने से अतुल ने अपने को बचाया। गाँव के जीवन की सहज बानगी के चित्रण में हर प्रकार के अतिवाद से अतुल ने अपने को बचाये रखा है, उसे ‘ग्लैमरस’ बनाने के लोभ से अपने को बचाया है।
इसमें न तो जातिवाद का प्रयोग किया गया है, और न ही राजनीतिक प्रतिबद्धता या राजनीतिक अतिवाद की अति की गई है। लगभग सभी पात्रों के एक ही नाम का प्रयोग किया गया है, जिससे आप उनकी जाति का पता नहीं लगा सकते। उनके व्यवसाय का तो पता चलता है, लेकिन एक दियारे के अन्दर कौन सी जाति का व्यक्ति कौन सा व्यवसाय अपना लेगा, इसे निर्धारित करना कठिन ही होता होगा। अतुल ने अपने को ‘आंचलिक लेखक’ बनने के लोभ से बचाया है, यह उनके सार्वभौम होने के गुण को दर्शाता है।
हर लेखक को यह निर्णय करना ही होता है, कि वह अपने को अपने ‘गाँव जवार’ का लेखक सिद्ध करना चाहता है, या कि अपने लेखन में अपने द्वारा देखे हु समाज का चित्र प्रस्तुत करना चाहता है।
हाँ, गाँव के लोगों के रहन-सहन, आपसी सम्बन्ध और आपसी व्यवहार और उनका लिहाज, बाढ़ की विभीषिका से जूझते गाँव के व्यक्ति, लोगों के दिलों की विशालता और क्षुद्रता – यही सब इसमें नज़र आता रहा। देश के विभिन्न भागों में इस सहजता को विकास का शिकार होते पिछले चालीस वर्षों में मैंने देखा है लेकिन इस उपन्यास में वर्णित क्षेत्र में यह अभी भी बची हुई है, पढ़ कर सन्तोष हुआ।
साली जी’ को बिना अधिक सामने लाए ही उनके बारे में सपने लेते किशोरों-युवकों की टोली की बतकहियाँ, क्रान्ति लाने के सपने देखते चिंगारी जी, ‘ए, गन्दा बात नहीं, एकदम नहीं…’ जैसे मासूम कथन इस उपन्यास को एकदम ज़मीन के समीप ही रखते हैं, ऊपर नहीं उड़ने देते।
अतुल ने हास्य-व्यंग्य का भी प्रयोग किया है, तो गुड़िया और रमावती के माध्यम से गाँव के जीवन के दुःख-दर्द को भी दिखाया है। दहेज, अशिक्षा, राजनीति, बेरोजगारी, विस्थापन और प्रेम जैसे तमाम पक्षों को दिखाने में डब्लू नेता, मनोज बो भौजी, झांझा बाबा, सुखारी डॉक्टर और कविराज चिंगारी जी जैसे चरित्रों ने भरपूर योगदान दिया है।
झांझा बाबा के चित्रण में अतुल एक ऐसा चरित्र गढ़ सके, जिसने पूरी कहानी को, विशेषकर अन्त में, एक अलग ही दिशा दे दी और स्त्री के सशक्तिकरण में पुरुष को हेय या दोषी दिखाने के भाव को दिखाने के लोभ से अतुल बच सके; गरीबी को महिमामण्डित करने से अतुल बच सके, इसमें मैं अतुल के एक उत्कृष्ट लेखक बनने के भविष्य के दर्शन कर रहा हूँ।
कुछ लोगों को फ़िल्मी गीतों के प्रयोग से इस उपन्यास की साहित्यिकता के प्रति समस्या हो सकती है, लेकिन मुझे लगता है कि फिल्मी गीतों से अपने को बचा कर अपने आसपास के ‘सच्चे’ चित्रण में अतुल निष्फल हो जाते; इस प्रकार के प्रयोग गलत नहीं हैं, सिर्फ उन प्रयोगों में अतिवाद से बचना ही आवश्यक होता है, जिसे अतुल ने बहुत अच्छे से निभाया है।
मैं इस उपन्यास को ‘पाठक का उपन्यास’ मानता हूँ, जिसमें कोई आदर्शवाद या सिद्धान्तवाद इत्यादि नहीं है, कोई सन्देश देने का ‘प्रयत्न’ भी नहीं किया गया है।
यह महत्वपूर्ण है, कि स्त्री कमजोर नहीं है, वह शक्तिशाली होती है, और अपनी शक्ति को दिखाने के लिये उसे अवसर खुद ही ढूँढने होते हैं. अतुल की पिंकिया भी कमजोर नहीं है; विकट परिस्थितियों से घिरी है, टूटती है, टूट कर उठती है, आगे चलती है, फिर गिरती है, और हल्का सा सहारा पाकर फिर उठ खड़ी होती है, और फिर रुकती नहीं, चलती चली जाती है और सहारा लेना बुरा क्यों होता है?
क्या हम वास्तविक जीवन में किसी का सहारा नहीं लेते? क्या पुरुष सहारा नहीं लेते? तो फिर, यदि एक स्त्री सहारा लेती है, तो क्या गलत है? हाँ, वह सहारा लेकर भी चल पड़ना हर व्यक्ति के बस का नहीं होता।
चंदा की विशेषता यही है, कि जैसे ही उसे कोई भी सहारा मिलता है, वह तुरन्त खड़ी हो जाती है, और आगे बढ़ने लगती है। बहुत से लोग अतुल की तुलना प्रेमचन्द या रेणु से कर सकते हैं लेकिन हर लेखक अपने में एक अलग ही व्यक्तित्व हुआ करता है।
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