Table of Contents
परिचय :-
जब आप ‘ इकोनॉमिक्स ’ शब्द सुनते हैं तो आपके दिमाग में क्या आता है ? आप तुरंत ऐसा सोचते हैं की ये बोरिंग होता होगा । आपको इसके बारे में सिर्फ इसलिए पता है क्योंकि आपको इसे सीखने के लिए मजबूर किया गया था । पर इकोनॉमिक्स की फील्ड बहुत बड़ी है और ज़रूरी नहीं कि ये कन्फ्यूज़िंग या बोरिंग नहीं हो। इकोनॉमिक्स भी इंटरेस्टिंग हो सकती है ।
लोग क्या खरीदते हैं, ये economists के लिए एक जानकारी होती है। लेन – देन यानी transaction, खरीदने वाले यानी buyer और बेचने वाले यानी seller के बीच का सिग्नल होते हैं । लोग कितने पैसे काम सकते हैं ये उस पर भी असर डालते हैं । ये तय करते हैं की कितने प्रोडक्टस और बनाए जाएंगे । Economists समझाते हैं की क्यों कुछ देश अमीर हैं और बाकी गरीब। इन activities को चलाने वाले सिस्टम को इकॉनमी कहते हैं । इसमें लोग , बिज़नस और बड़े बड़े organization आते हैं ।
इस समरी में आप सीखेंगे की रोज़मर्रा के लेन – देन में आप कैसे एक इकोनॉमिस्ट की तरह सोच सकते हैं – example के लिए कॉफी या सब्जियां खरीदते वक्त । आप सीखेंगे की वो कौन सी चीज़ है जो लोगों को कोई समान खरीदने या ना खरीदने का फैसला करने में मदद करती है । लोगों के खरीदने और ना खरीदने का फैसला किसी भी बिज़नस पर बहुत असर डालते हैं । बिज़नस अपने बड़े बड़े फैसला कस्टमर के behaviour को देखकर ही लेते हैं । ये आपको समझने में मदद करेगा की लोगों को क्या , कैसे और क्यों मिलता है ।

आपकी कॉफी का बिल कौन देता है ? (Who Pays for Your Coffee? )
मान लीजिए की आपके पास खुद की एक ज़मीन है । एक किसान को ज़मीन की ज़रूरत होती है। वो पैसे कमाने के लिए इसमें अनाज उगाता है। तो एक किसान आपसे कहता है की वो आपकी ज़मीन खरीदना चाहता है ।
चलिए मान लेते हैं की आपकी ज़मीन दूसरों की ज़मीन से अलग है । वो बहुत ही fertile यानी उपजाऊ है । जो भी उसमें खेती करेगा , उसे बहुत अनाज मिलेगा । इसका मतलब है की आपकी ज़मीन बहुत ज्यादा प्रोडक्टिव है । ये फायदा आपको अपनी ज़मीन को अपने मन मुताबिक दाम में बेचने की पॉवर देता है ।
इसका मतलब है की अब आप खरीदने वाले से थोड़ी ऊंची कीमत की डिमांड कर सकते हैं, इसे bargain करने की पॉवर कहते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि खरीदने वाले ये देख सकते हैं की आपकी ज़मीन ज़्यादा प्रोडक्टिव और वैल्युएबल है और अगर वो इसे इस्तेमाल करते हैं तो वो ज़्यादा अनाज उगा पाएंगे और ज़्यादा पैसे भी कमा पाएंगे ।
पर आप बस यूँही उन्हें नहीं बात सकते कि आपके पास अपनी ज़मीन को ज़्यादा दाम में बेचने की पॉवर है । आप अचानक और तुरंत ही अपनी ज़मीन का एक उंचा प्राइस नहीं लगा सकते। आपकी ज़मीन को ज़्यादा प्राइस में बेचने की पॉवर , उस चीज़ की कमी यानी scarcity पर डिपेंड करता है । जब कोई रिसोर्स कम होता है तो इसका मतलब है की वो ज़्यादा quantity में या आसानी से नहीं मिलता है । किसी चीज़ की कमी ये तय करती है की उसकी कीमत क्या होगी । बदले में कीमत, खरीदने वाले और बेचने वाले के लेन – देन पर असर डालते हैं।
Example के तौर पर, आपके आस पड़ोस वालों के पास भी बहुत ज़बरदस्त ज़मीन हो सकती है । उनकी ज़मीन भी हरी भरी और प्रोडक्टिव है, उनकी ज़मीन में कोई कमी नहीं है । अब इस केस में आपकी ज़मीन किसी भी तरीके से अलग नहीं हुई, इसलिए आप अपनी ज़मीन की कीमत बहुत ज़्यादा नहीं लगा सकते।
इसी तरह आपकी ज़मीन की कीमत तय करने की पॉवर या bargaining strength बदल सकती है । इसे ही इकोनॉमिस्ट competition कहते हैं । जब एक रिसोर्स कम होता है तो वो इकलौता या ख़ास होता है यानी एक्सक्लूसिव । जब कोई चीज़ एक्सक्लूसिव हो तो इसका मतलब है की वो हर किसी के पास नहीं हो सकती। हालांकि, ये एक ऐसी चीज़ हो सकती है जो कई लोग चाहते हों या इसकी कई लोगों को ज़रूरत हो । ये चीज़ उसे और भी वैल्यूबल बना देती है । इसी वजह से वो महंगी हो जाती है ।
हालांकि दूसरे फैक्टर भी प्राइस पर असर डालते हैं। हमेशा किसी चीज़ की कमी होना ही main कारण नहीं होता। बाहरी चीज़ें जैसे की law, गवर्नमेंट के रुल्स या फिर क्राइम प्राइस पर असर डाल सकते हैं । लंदन में एक जगह है जिसे की ग्रीन बेल्ट कहते हैं ।
ये शहर का वो हिस्सा है जहाँ खेती करना illegal है । इस वजह से वहाँ खेती के लिए ज़मीन की कमी है । इसका मतलब है की खेती के लिए जो ज़मीन होगी वो और भी ज़्यादा महंगी होगी । ये एक example है की कैसे law प्राइस पर असर डालता है ।
तो गवर्नमेंट कैसे प्राइस पर असर डाल सकती है ? इसके लिए तेल का example लेते हैं । ये कई इंडस्ट्रीज़ के लिए एक वैल्यूबल रिसोर्स है । ये सऊदी arabia , कुवैत और इराक जैसे देशों में produce किया जाता है । हालांकि वहाँ तेल की कीमत बहुत ही कम है क्योंकि तेल बहुत ही ज़्यादा quantity में पाया जाता है ।
The Organization of the Petroleum Exporting Countries (OPEC) ने इसमें कुछ बदलाव किए। 1973 में उन्होंने अपने मेंबर देशों को तेल produce करने की quantity की एक लिमिट तय करने को कहा।
इसने तेल की quantity को कम कर दिया, इस वजह से इसकी प्राइस बढ़ गई और उन्हें बहुत अच्छा प्रॉफ़िट हुआ । अंत में आता है क्राइम । बड़े-बड़े गैंग अपना competition कम करने के चक्कर में लड़ाई झगड़े और violence का सहारा लेते हैं । ड्रग्स कई गैंग के लिए एक बिजनस का ज़रिया है। अपने प्रॉफ़िट को बढ़ाने के लिए वो ड्रग्स की कमी बनाए रखते हैं । इसका मतलब है की उन्हें competition को कंट्रोल करना होता है ।
ट्रैड union भी competition को कम करने का एक अच्छा तरीका है। Unionworkers को जॉब के लिए एक दूसरे से competition करने से रोकते हैं । वो workers को थोड़ी bargaining power देते हैं । ये competition को कंट्रोल करने में भी मदद करते हैं । जैसे की , electricians की काफी डिमांड हो सकती है । अगर electrician की सप्लाई कम होगी तो ये उन्हें bargaining power देता है । वो इस कमी का फायदा उठा सकते हैं । ये उन्हें अच्छी सैलरी और अच्छा वर्किंग कंडिशन पाने में मदद करता है ।
Starbucks अपनी एक कप cappuccino का $2.25 चार्ज करते हैं । ये एक कप कॉफी के हिसाब से बहुत महँगा है । हजारों लोग starbucks से कॉफी खरीदते हैं । आखिर लोग कॉफी के लिए इतना खर्च करने के लिए तैयार क्यों हैं?
Starbuck का फायदा उसकी लोकेशन में है । उनके स्टोर वहाँ हैं जहाँ ट्रेन स्टेशन के exit और सड़क के किनारों पर हैं। ऐसी लोकेशन की वजह से उनका रेंट भी काफी ज़्यादा होता है ।
सुबह ऑफिस hour के समय लोगों को ऑफिस जाने की बड़ी जल्दी होती है, साथ ही उन्हें कॉफ़ी पीने की बड़ी तलब होती है इसलिए उस वक्त उनकी प्राइऑरटी गली में मिल रही सबसे सस्ती कॉफी ढूँढना नहीं होती। इस वजह से वो ज़्यादा खर्च करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं. वो कस्टमर जो कॉफ़ी के लिए ज़्यादा पैसे खर्च करते हैं उनकी वजह से रेंट भी बढ़ जाता है ।
तो इसमें ज़्यादा फायदा starbucksको होता है या अपनी ज़मीन रेंट पर देने वाले को?
ज़्यादा फायदा ज़मीन को रेंट पर देने वाले को होता है । ऐसा इसलिए क्योंकि वो लोकेशन उनका है। वो फैसला करते है की अपनी जगह किसे और कितने रेंट पर देनी है । वो कई कॉफी शॉप्स के बीच किसी को भी चुन सकते हैं । लोकेशन एक्सक्लूसिव होने की वजह से उसे फायदा होता है । कोई भी कॉफी शॉप ऐसी जगह रेंट पर नहीं लेना चाहेगा जहाँ और भी कॉफी शॉप्स हों।
याद रखिए वो bargaining power ढूंढ रहे हैं । यही लोकेशन की पॉवर है । तो वो एक exclusive अग्रीमेंट किसी एक कॉफी शॉप के साथ साइन कर सकते हैं . ये उन्हें bargaining strength देता है , अब वो एक ऊंचे रेंट की डिमांड कर सकते हैं ।
Also Read- विनोद कापरी की प्रवासी मजदूरो पर लिखी ‘1232 km: द लॉन्ग जर्नी होम’ शीर्षक पुस्तक की समीक्षा
सुपरमार्केट आपसे क्या छुपाना चाहते हैं? (What Supermarkets Don’t Want You To Know):-
पैसा बचना मुश्किल है चाहे आप कुछ भी कर लें , आप जितना भी काम कर लें आपको लगेगा की ये काफी नहीं है । आपको लगेगा की पैसा आपके हाथों से फिसल रहा है । ऐसा क्यों है, उसके कई कारण हैं
पहला कारण है आपके खर्चकरने की आदत । एक बार ध्यान से हर बिज़नस की pricing strategy को देखिए । जब आप अगली बार सब्जियां लेने जाएँ तब इसका ध्यान रखिएगा । observe करना ही आपको आगे तक ले जाएगा।
कई बिज़नस स्ट्रेटेजी के तौर पर अपना टारगेट प्राइस तय करते हैं और ऐसे ही वो उन कस्टमर को ढूंढते हैं जो उनके प्रोडक्ट के लिए ज़्यादा pay करने को तैयार हों। पहली स्ट्रेटेजी को “द यूनीक टारगेट स्ट्रेटेजी ” कहा जाता है । दूसरा है “ग्रुप टारगेट स्ट्रेटेजी ”। अंत में आता है “self-incrimination स्ट्रेटेजी ”। सुपरमार्केट प्रॉफ़िट बनाने के लिए ज़्यादातर लास्ट स्ट्रेटेजी को use करते हैं ।
यूनीक टारगेट स्ट्रेटेजी एक सिंगल कस्टमर पर फोकस करती है और वो कितना pay करना चाहते हैं उस पर बेस्ड होती है । example के तौर पर वो लोग जो अपनी पुरानी गाड़ी बेचते है ज़्यादातर इसी स्ट्रेटेजी का इस्तेमाल करते हैं । ये लोग एक शादी शुदा कपल और एक सिंगल औरत से एक ही प्राइस की डिमांड नहीं करेंगे ।
कई बिज़नस ने ऐसा ही टेक्नॉलजी के जरिए भी करना शुरू कर दिया है । Amazon अपने कस्टमर के खरीदे जाने वाले आइटम को अपने वेबसाईट पर trace करता है । वो user की cookies का इस्तेमाल कर के ऐसा करते हैं ।
Amazon इस information को अलग अलग कस्टमर के price को customise करने के लिए इस्तेमाल करते हैं जिसका मतलब है कि एक प्रोडक्ट की प्राइस कस्टमर देखकर चेंज भी की जाती है।
ग्रुप टारगेट स्ट्रेटेजी भी लगभग ऐसी ही है । बस इसमें हर इंसान की जगह priceएक ग्रुप को देखकर चेंज किया जाता है। जैसे की कई business सीनियर citizens और स्टूडेंट्स को डिस्काउंट देते हैं । ये उन ग्रुप्स के लिए काम करता है जो की priceको लेकर थोड़े सेन्सिटिव होते हैं ।
कंपनियां उन कस्टमर पर ज़्यादा फोकस करती हैं जो ज़्यादा पैसे खर्च करने को तैयार होते हैं । डिज़्नी वर्ल्ड अपने लोकल सिटिज़न के लिए 50 % डिस्काउंट देते हैं । इस वजह से लोकल्स वहाँ जाना ज़्यादा पसंद करते हैं और अक्सर जाते भी रहते हैं ।
वहीं दूसरी तरह touristवहाँ रेगुलरली नहीं जाते। इसलिए वो लोकल्स के कम्पैरिसन में कम प्राइस सेन्सिटिव होते हैं । तो इसलिए डिज़्नी वर्ल्ड उनसे टोटल प्राइस बिना कोई डिस्काउंट दिए चार्ज करता है।
लास्ट स्ट्रेटेजी है “self-incrimination”। ये तब होता है जब कोई बिज़नस ऐसा प्रोडक्ट ऑफर करता हो जिसमें बहुत ही कम फ़र्क होता हो और उसके डिफरेंस से production की कॉस्ट में ज़्यादा फ़र्क नहीं आता है। वो अपना प्रोडक्ट अलग अमाउन्ट में , अलग लोकेशन और अलग फीचर्स के साथ ऑफर करते हैं । इस स्ट्रेटेजी से उन्हें पता चलता है की कौन से कस्टमर उनके प्रोडक्ट के लिए ज़्यादा से ज़्यादा pay करने के लिए तैयार हैं।
सुपरमार्केट ऐसा सेम प्रोडक्ट के अलग अलग ब्रैन्ड और प्राइस को साथ में रखकर डिस्प्ले करते हैं। जैसे की हो सकता है कोई कस्टमर प्राइस सेन्सिटिव ना हो तो वो एक महँगा ऑरेंज जूस भी खरीद सकता है जिसका स्वाद उन्हें बहुत पसंद हो । वो कोई दूसरा ऑरेंज जूस सस्ते दाम में देखने के बारे में हो सकता है सोचे भी ना।
वहीं दूसरी तरफ , एक प्राइस सेन्सिटिव कस्टमर bargain के लिए कोई ऑप्शन ढूंढेगा । वो पूरा स्टोर घूमने में ज़्यादा समय भी लगा सकते हैं पर वो वही ऑरेंज जूस खरीदना पसंद करेंगे जो उनके लिए ज़्यादा affordable यानी किफ़ायती हो।
मान लीजिए की आप London में एक टूरिस्ट हैं जो Londoneye घूमने गए हैं । अब आपको रास्ते में कॉफी पीने का मन करता है और आप देखते हैं की Costa कॉफी बार ही सबसे नज़दीकि कॉफी शॉप है। क्योंकि Londoneye एक टुरिस्ट अट्रैक्शन है , तो वो Costa को scarcity की पावर देता है ।
इसका मतलब ये भी है की Costa महँगा रेंट भी भरता है । बहुत सारे लोग जो Londoneye देखने जाते हैं वो वहाँ के सिटिज़न नहीं होते। क्योंकि आप टूरिस्ट हैं इसलिए आप कॉफी का ज्यादा प्राइस देने को भी तैयार हो जाते हैं वो भी Londoneye के नज़ारे के साथ ।
हालांकि कस्टमर कॉफी ना खरीदने का भी फैसला कर सकते हैं । ऐसे बहुत से कस्टमर होंगे जो सिर्फ लोकेशन की वजह से ज़्यादा pay नहीं करना चाहेंगे ।
example के तौर पर वो लंदन के रहने वाले हो सकते हैं । इसलिए कॉस्टा को प्रॉफ़िट कमाने के लिए दूसरा तरीका ढूँढना पड़ेगा ।कॉस्टा के पास 2 optionहैं – वो या तो कम कॉफी ऊंचे प्राइस में बेच सकते हैं या फिर ज़्यादा कॉफी कम प्राइस में।
इसे ही इकोनॉमिस्ट मार्जिन कहते हैं।
एक स्ट्रेटेजी जो कॉस्टा ने अपनाई थी वो थी fair trade coffee। Fairtrade कॉफी ज़्यादा महँगी होती है और किसानों को इसे बनाने के ज़्यादा पैसे भी दिए जाते हैं । ये लगभग 18 सेंट ज़्यादा महँगी होती है ।
ज़्यादातर कस्टमर सोचते हैं की वो जो भी एक्स्ट्रा पैसे देते हैं वो सीधे फार्मर्स के पास जाता है पर ऐसा नहीं है, वो कॉस्टा को ही मिलता है । कॉफी बीन्स productioncost में एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा रखता है। इस तरीके से कॉस्टा प्रॉफ़िट बना पाता है । Fair trade कॉफी वाली स्ट्रेटेजी से कॉस्टा को ये पता चला की कौन से कस्टमर हैं जो उन्हें ज़्यादा पैसे pay कर सकते हैं । ये self-incrimination स्ट्रेटेजी का example है ।
परफेक्ट मार्केट और सच्चाई की दुनिया (Perfect Markets and the “World of Truth”) :-
आप अपने पैसे किस चीज़ पर खर्च करते हैं , ये आपके बारे में बहुत कुछ बताता है । जैसे की मान लीजिए आपके पास 92 सेंट हैं। ऐसी बहुत सारी चीज़ें हैं जिन पर आप ये पैसे खर्च कर सकते हैं । आप तय करते है की आपको इसे कॉफ़ी पर खर्च करना है । इस खरीद के साथ आप मार्केट को अपने बारे में information दे रहे होते हैं ।
आप मार्केट को बताते हैं की आपके पैसे कॉफी खरीदने की वर्थ रखते हैं । आप कॉफी को बाकी चीज़ों से ऊपर चुनते हैं । हजारों लोग ऐसी सेम चॉइस रख सकते हैं।यह बिज़नस करने वालों को बताता है कि लोग कॉफी पर 92 सेंट खर्च करने को तैयार हैं। यह एक कप कॉफी का मार्केट प्राइस बन जाता है।
प्राइस buyer के बारे में बहुत सारे information दिखाते हैं। अगर कस्टमर्स को कोई प्रोडक्ट बहुत महंगा लगता है, तो वे उसे नहीं खरीदेंगे। सेलर भी यही करते हैं, वे किसी प्रोडक्ट को बनाने की कॉस्ट से कम पर उसे नहीं बेचेंगे।
जब buyer और सेलर किसी प्रोडक्ट के एक specificप्राइस पर राज़ी हो जाते हैं तो उसे efficiency कहते हैं । इसमें buyer और सेलर दोनों को ही इस सेल से कुछ फायदा होता है । buyer को उसकी कॉफी मिल जाती है जो की वो सोचता है 92 सेंट के हिसाब से सही प्राइस है और सेलर को उसके पैसे मिल जाते हैं जो उसे कॉफी बनाने में लगते हैं।
एक प्रोडक्ट की वैल्यू उसके buyer और सेलर पर डिपेंड करती है । उनका एक ही प्राइस पर रजामंद होना ज़रूरी है । ये डिपेंड करता है की एक buyer कितने पैसे में प्रोडक्ट खरीदने को तैयार है और एक सेलर कितने पैसे में उसे बेचने को तैयार है।
लोग क्या खरीदते हैं ये तय करता है की sellers क्या प्रोड्यूस करेंगे। इसे लॉ ऑफ सप्लाई और डिमांड कहते हैं। अगर लोगों को कंप्यूटर की ज़रूरत है तो बिज़नेस वही सप्लाई करेंगे। वो फैक्ट्री लगाएँगे, लोगों को काम पर रखेंगे और वो मटेरियल खरीदेंगे जिससे की वो कंप्यूटर बना सकें। ये रूल हर प्रोडक्ट पर अप्लाई होता है । Competitive मार्केट में 4 चीज़ें हो रही हैं:
- कंपनीज़ सही तरीके से चीज़ें बना रही हैं । कंपनी पैसे गँवा देगी अगर वो किसी प्रोडक्ट को बनाने में रिसोर्सेज को वेस्ट करेगी तो । ये उन्हें बिज़नेस बंद करने पर भी मजबूर कर सकता है , इसलिए प्रोडक्ट को बड़े ही ध्यान से बनाया जाता है ।
- कंपनीज़ सही चीज़ें कर रही हैं। कंपनीज़ वही प्रोडक्ट बना रही हैं जिनकी buyers डिमांड कर रहे हैं। प्राइस सेलर्स को बताते हैं की buyer किन चीज़ों पर अपने पैसे खर्च करना सही समझते हैं। Example के तौर पर एक पेस्ट्री प्रोड्यूस करने की कॉस्ट और 2 कॉफी प्रोड्यूस करने की कॉस्ट बराबर ही आएगी ।
- अगर buyer कॉफी को चुनते हैं तो ये सेलर को बताएगा की उन्हें क्या प्रोड्यूस करना चाहिए , तो वो पेस्ट्री से ज़्यादा कॉफी प्रोड्यूस करेंगे।
- चीज़ें सही quantity में बनाई जाती हैं। कंपनीज़ सही quantity में प्रोडक्ट बनाती हैं जितने की एक buyer की डिमांड होती है । Example के तौर पर अगर एक कंपनी बहुत सारी कॉफी बना देती है तो उसकी प्राइस कम हो जाएगी । यहां पर कॉफी की थोड़ी स्कार्सिटी हो सकती है। अगर कंपनीज बहुत कम कॉफी बनाती है तो प्राइस बहुत बढ़ जाएंगी ।
तो आपकी इच्छाएं क्या हैं इस मामले पर इन पर information नहीं ली जाती है। ये एक example है की कैसे एक नॉन मार्केट सिस्टम किसी प्रोडक्ट की असल कॉस्ट को छुपा सकता है। ये इससे तय नहीं होता की कस्टमर्स कितना खर्च करने के लिए तैयार हैं और न ही इससे की उसे प्रोड्यूस करने में कितनी कॉस्ट आएगी।
दूसरा example है गवर्नमेंट द्वारा स्कूल का इंतज़ाम करना । सभी स्कूल एक ही तरह के नहीं होते हैं, कुछ दूसरों से बेहतर भी होते हैं।
एक मार्केट सिस्टम में वो पैरेंट्स जो ज़्यादा खर्च करने के लिए तैयार हैं वो बेहतर स्कूल चुनेंगे । इस केस में पैरेंट्स को प्रोटेस्ट या लॉबी करना पड़ेगा । वो अपने आस पास की जगह के बेस्ट स्कूल में जाना पसंद करेंगे।
इससे डिमांड की information नहीं मिलती है । ये नहीं बताता की प्राइस के बेसिस पर पैरेंट्स की चॉइस क्या है। साथ ही ये भी नहीं पता चलता की क्वालिटी स्कूल बनाने में कितना कॉस्ट आता है ।
बीयर , फ्राइज़ और ग्लोबलाइजेशन (Beer, Fries, and Globalization)
मान लीजिए की आप एक देश हैं । आप अमीर होना चाहते हैं । अमीर होने का सिर्फ एक तरीका है और वो है कि आप दूसरे देशों के साथ बिज़नस करें । ये possibility हो सकती है की आपको एक comparativeadvantage मिलेगा । इस फायदे की वजह से हो सकता है की दूसरे देश खुद आपके साथ बिज़नस करना चाहें । अगर आप दोनों बिज़नस करते हैं जिसे की trade कहते हैं तो आप दोनों को ही फायदा होगा ।
Comparative advantage का मतलब है जिस भी काम में आप बेस्ट हैं उसे बढ़ाना । जैसे की हो सकता है आप biology में एक्सपर्ट हों पर आप इकोनॉमिक्स में अच्छे नहीं हैं । वहीं आपका दोस्त इकोनॉमिक्स में एक्सपर्ट हो सकता है पर वो बायोलॉजी में बहुत ही बुरा हो।
तो आप एक biologist के तौर पर काम कर के ज़्यादा पैसे कमा पाएंगे । वहीं आपका दोस्त इकोनॉमिस्ट के तौर पर ज़्यादा पैसे कमा पाएगा । आप उस सब्जेक्ट में ज़्यादा पैसे कमा पाएंगे जिस में आप सबसे अच्छे हों ।
अब हम यही कॉन्सेप्ट देशों पर अप्लाइ करते हैं । मान लेते हैं की अमेरिकन वर्कर्स ड्रिल प्रडूस करते हैं । चाइनीज वर्कर्स TVबनाते हैं ।
एक अमेरिकन वर्कर एक ड्रिल 30 मिनट में बना सकता है । वो एक टीवी भी 60 मिनट में बना सकता है ।
वहीं दूसरी तरफ एक चाइनीज वर्कर एक ड्रिल 20 मिनट में बना सकता है और एक टीवी 10 मिनट में भी बना सकता है।
तो चाइनीज वर्कर्स के पास tvके मामले में एक कम्पैरटिव advantage है क्योंकि एक अमेरिकन वर्कर वही टीवी प्रडूस करने में 6 गुना ज़्यादा समय लगाता है । अगर US और China ट्रेड ना करे तो US को एक टीवी और एक ड्रिल प्रडूस करने में 90 मिनट लगते हैं , वहीं चाइना को सिर्फ 30 मिनट ।
मान लेते हैं की वो trade करते हैं । तो चाइनीज वर्कर 30 मिनट में 2 टीवी बना सकते हैं और अमेरिकन वर्कर्स 2 ड्रिल 60 मिनट में बना सकते हंे । तो वो एक ड्रिल के बदले एक टीवी trade कर सकते हैं । अब चाइना और US दोनों के ही पास टीवी और ड्रिल दोनों हैं और उन दोनों को ही कम काम करना पड़ेगा और दोनों ही देशों को trade करने से फायदा होगा ।
कुछ लोग इस डर में रहते हैं की trade करने की वजह से उनकी जॉब जा सकती है । तो वो इस वजह से trade पर पाबंदी लगा देते हैं । इसे trade barrier कहते हैं ।
example के तौर पर अगर एक देश किसी प्रोडक्ट का फॉरेन इम्पोर्ट बैन कर देता है जैसे की चाय, दूसरे शब्दों में कहें तो चाय का आपके देश में आना बंद कर दिया गया हो तो इससे लोग लोकली चाय प्रडूस करने लगेंगे ।
खैर लोकल चाय फिर export नहीं की जाएगी । दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें किसी दूसरे देश में बेचा नहीं जाएगा । ऐसा इसलिए क्योंकि export से जो भी फॉरेन करेंसी आएगी उसे इस्तेमाल या खर्च नहीं किया जा सकेगा ।
Also Read – अमीर कैसे बनें? | जाने Rich बनने का रहस्य
Trade barrier लोगों को वो पैसे फॉरेन इंपोर्ट्स में खर्च करने से रोकते हैं । ये दिखाता है की कैसे trade barrier फायदे से ज़्यादा नुकसान दायक होते हैं ।
दूसरे देशों का competition आपके देश का बिजनस बंद नहीं करता है । आपके देश को फिर भी प्रोडक्ट बेचने के लिए उसे प्रडूस करने की ज़रूरत पड़ेगी । ये आपको प्रॉफिट्स कमा कर देगा । ये प्रॉफ़िट आपको दूसरे देशों से प्रोडक्ट खरीदने की एबिलिटी देगा जिसे की इंपोर्ट कहते हैं ।
Trade barrier थोड़ा मुश्किल हो सकता है । ज़ाहिर सी बात है की americans को टीवी प्रडूस करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । उनके ट्रेड अग्रीमन्ट का मतलब है की वो ड्रिल प्रडूस करेंगे और चाइनीज टीवी इम्पोर्ट करेंगे । इस वजह से टीवी बनाने वाले अपनी दुकाने बंद कर लेंगे । पर इसका मतलब ये नहीं है की इसकी वजह से US को नुकसान होगा । tradeUS की सिचुएशन को खराब नहीं करेगा । बस एक specific ग्रुप के लोगों को थोड़ा नुकसान झेलना पड़ेगा जैसे की वो अमेरिकन वर्कर्स जो टीवी प्रडूस करते हैं।
टिम हारफोर्ड कहते हैं की इसका सॉल्यूशन ये है की हम इन ग्रुप को सपोर्ट करें और बचाकर रखें। Healthy इकोनॉमी में जॉब जाती है पर वो नई जॉब क्रिएट भी करती है। तो ट्रेड से देशों को फायदा होता है। वो प्रोडक्ट, टेक्नोलॉजी, information और इन्वेस्टमेंट को ट्रेड करते हैं। ज्यादातर लोग इसे ग्लोबलाइजेशन से जोड़ते हैं । अमीर देशों की कंपनियां गरीब देशों में इन्वेस्ट कर सकती हैं। जैसे की वो फैक्टरी बना सकती हैं। ये जॉब्स क्रिएट करती हैं और knowledegeऔर टेक्नोलॉजी देती हैं।
ट्रेड लोगों को अमीर बनाता है । खैर ये नेचर को नुकसान ज़रूर पहुंचता है । ट्रांसपोर्ट की कॉस्ट और एनर्जी का consumption climate चेंज पर असर डालता है ।
गवर्नमेंट को इस डैमेज को बैलेंस करने के लिए policyबनानी पड़ती हैं। जैसे की वो सल्फर या कार्बन छोड़ने पर पर US और चाइना पर टैक्स लगा सकते हैं । वो फॉसिल फ्यूल को सब्सिडाइज करना बंद कर सकते हैं जो की ozone लेयर पर बुरा असर डालते हैं।
Conclusion:-
पहले आपने चीज़ों की कमी यानी scarcity के बारे में सीखा । Scarcity किसी प्रोडक्ट जैसे की किसी ज़मीन की वैल्यू पर कैसे असर डालते हैं। ये उसके प्राइस को तय करता है । जब कोई रिसोर्स कम होता है , तो वो owner को bargaining Power देता है।
दूसरा आपने 3 प्राइसिंग strategies के बारे में सीखा । Individual target strategy का मतलब है प्राइस हर इंसान को देख कर बदल सकता है । ग्रुप टारगेट strategies भी मिलती जुलती होती हैं। जैसे की सीनियर citizens को डिस्काउंट देना ।
लास्ट है सेल्फ इंक्रिमिनेशन स्ट्रेटजी । इसका मतलब है मिलते जुलते प्रोडक्ट्स को अलग अलग प्राइस पर बेचना । इससे सेलर को पता चलता है की बायर एक प्रोडक्ट पर कितना खर्च करने को तैयार है ।
तीसरा है लॉ ऑफ डिमांड एंड सप्लाई प्रोडक्ट के प्राइस पर असर डालता है । लोगों की चॉइस ये बताती है की वो क्या खरीदेंगे । जब लोगों को किसी प्रोडक्ट की ज़रूरत होती है तो वो उसके लिए pay करने के लिए तैयार हो जाते हैं। ये सेलर को बढ़ावा देते हैं की वो ऐसे और प्रोडक्ट बनाएं ।
जब प्रोडक्ट जयादा quantity में सप्लाई किए जाते हैं , तो वो प्राइस को कम कर देता है । जब किसी प्रोडक्ट की सप्लाई कम होती है तो इसका मतलब है की उस प्रोडक्ट की मार्केट में कमी है ।
चौथा है एक फ्री मार्केट में प्राइस असलियत बता देती है। ये इस बात की जानकारी देती है की बायर किस पर खर्च करना पसंद करेंगे। इससे प्रोड्यूसर्स को पता चलता है की कौन सा प्रोडक्ट बनाना है और कितना बनाना है । ये बिजनेस के फैसलों पर भी असर डालता है।
पांचवां आपने सीखा ट्रेड और ग्लोबलाइजेशन के बारे में । ट्रेड उन देशों को फायदा करा सकता है जो आपस में चीज़ें एक्सचेंज करते हैं । किसी एक देश के पास comparative advantage हो सकता है जो की दूसरे देशों के पास न हो। ट्रेड दोनों ही देशों को दोनों प्रोडक्ट इस्तेमाल करने की एबिलिटी देता है । इसका मतलब है की दोनों देश ही फायदे में हैं।
ट्रेड दुनिया भर से प्रोडक्ट का एक्सचेंज के साथ और भी बहुत कुछ लाता है। इसे ही globalisation कहते हैं। Globalisation के अपने फायदे और नुकसान हैं। ये कई जॉब्स क्रिएट करते हैं और और देशों को आगे बढ़ने में मदद करते हैं। इससे नेचर पर बुरा असर भी पड़ता है। ये रिसोर्सेज को वेस्ट कर सकता है और ट्रांसपोर्ट कॉस्ट भी बढ़ा सकता है।
पर इसका मतलब ये नहीं है की globalisation बुरा है । ग्लोबलाइजेशन नॉलेज को बढ़ाता है। नॉलेज से कई देश आगे बढ़ सकते हैं। गवर्नमेंट को थोड़ा आगे बढ़कर कदम उठाने होंगे ताकि वो इससे होने वाले नुकसानों को रोक सकें। Healthy इकोनॉमी बिजनेस के बीच healthycompetition को बढ़ावा देती हैं।
मार्केट को समझना आपको एक बेहतर consumer बना सकता है ।
आप अपनी खरीददारी पर ज़्यादा ध्यान दे सकते हैं। याद रखिए आपकी चॉइस प्राइस पर असर डाल सकती हैं। प्राइसिंग strategies और कंज्यूमर बिहेवियर के बारे में जानकारी होना भी आपके लिए फायदेमंद हो सकता है। आप इन concepts को अपना बिजनेस शुरू करने के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं। हो सकता है एक दिन आप बहुत ही सक्सेसफुल एंटरप्रेन्योर बन जाएं।