दोस्तों ये कहानी मुंशी प्रेमचन्द जी द्वारा लिखी गई है, हमने इस स्टोरी को बहुत सिम्पलीफाई करके दिल से आपके लिये लिखा है। एक बात तो जरुर है की ये स्टोरी सुन के आप इमोशनल जरुर हो जायेगें । तो आइये शुरू करते है ।
झोपड़े के दरवाज़े पर बाप और बेटा हाथ सेंकने के लिए जलाई हुई आग के सामने चुपचाप बैठे हुए थे . अन्दर बेते की जवान बीबी बुधिया , जो माँ बनने वाली थी , वो दर्द में कराह रही थी । रह – रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल देहला देने वाली आवाज़ निकल रही थी कि दोनों कलेजा थाम लेते थे । कड़ाके की ठंड थी , रात का वक़्त था , प्रकृति सन्नाटे में और सारा गाँव अन्धकार में डूबा हुआ था । पिता घीसू ने कहा- ” लगता है , बचेगी नहीं । तेरा सारा दिन दौड़ते हुए बीत गया , जा देख तो आ ” । माधव चिढक़र बोला- ” मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती ? देखकर क्या करूँ ? ” ‘ तू तो बड़ा बेरहम है ! साल – भर जिसके साथ सुख – चैन से रहा , उसी के साथ इतनी बेवफाई ! ‘ ‘ तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ – पाँव पटकना नहीं देखा जाता । ‘ ये चमारों का परिवार था और सारे गाँव में बदनाम भी था ।
घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता । माधव इतना काम – चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर बैठकर चैन से हुक्का पीता । इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी । घर में मुठ्ठी – भर भी अनाज मौजूद हो , तो बस वो दोनों काम से तौबा कर लेते । जब दो – चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडियाँ तोड़ लाता और माधव उसे बाज़ार में बेच देता और जब तक वह पैसे रहते , दोनों इधर – उधर मारे – मारे फिरते । गाँव में काम की कमी नहीं थी । किसानों का गाँव था , मेहनती आदमी के लिए पचास काम मौजूद थे ।
मगर लोग इन दोनों को उसी वक्त बुलाते , जब दो आदमियों से एक का काम निकलवाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा नहीं होता था । अगर ये दोनो साधु होते , तो उन्हें सन्तोष और धीरज के लिए , संयम और नियम की बिलकुल जरूरत नहीं होती । यह तो इनका स्वभाव था । अजीब जीवन था इनका ! घर में मिट्टी के दो – चार बर्तन के सिवा कोई दौलत या जायदाद नहीं थी । फटे चीथड़ों से ये अपने तन को ढाँके हुए जिये जा रहे थे ।
संसार की चिन्ताओं से आज़ाद लेकिन बुरी तरह कर्ज में डूबे हुए । ये गालियाँ भी खाते , मार भी खाते , मगर इन्हें कोई गम नहीं होता । ये इतने ग़रीब और दयनीय हालात में थे कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ – न – कुछ कर्ज़ दे देते थे । मटर , आलू की फसल होने पर ये दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून – भानकर खा लेते या दस – पाँच गन्ना उखाड़ लाते और रात को चूसते । घीसू ने इसी में साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के नक़्शे क़दम पर चल रहा था , बल्कि उसका नाम और भी रौशन कर रहा था । इस वक्त भी दोनों आग के सामने बैठकर आलू भून रहे थे , जो कि किसी खेत से खोद कर लाये थे ।
घीसू की पत्नी का तो बहुत दिन पहले ही देहान्त हो गया था । माधव की शादी पिछले साल हुई थी । जब से यह औरत आयी थी , उसने इस घर को रहने लायक बना दिया था और इन दोनों बे – गैरतों के सुख सुविधा का पूरा ध्यान भी रखती थी । जब से वह आयी थी , यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे । बल्कि कुछ अकडने भी लगे थे । कोई अगर काम करने के लिए बुलाता , तो ये बेशर्मी से दुगुनी मजदूरी माँगते । वही औरत आज डिलीवरी के दर्द से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए , तो ये आराम से सोयें । घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा- ” जाकर देख तो , क्या दशा है उसकी ? इतना चीख रही है , चुडैल का साया होगा , और क्या ? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है ! “
माधव को डर था , कि अगर वह कोठरी में गया , तो घीसू सारे आलू खा जाएगा । वो बोला- ” मुझे वहाँ जाते हुए डर लगता है ” । ‘ डर किस बात का है , मैं तो यहाँ हूँ ही । ‘ ‘ तो तुम्हीं जाकर देखो न ? ‘ ‘ मेरी पत्नी जब मरी थी , तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं था ; और फिर ये तेरी पत्नी है , क्या वो मुझसे शर्माएगी नहीं ? मैंने जिसका कभी मुँह नहीं देखा , आज उसका आधे कपड़ों में लिपटा हुआ शरीर देखू ! उसे तो अभी अपने शरीर की सुध भी नहीं होगी ? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ – पाँव भी नहीं मार सकेगी ! ‘ ‘ मैं सोचता हूँ कोई बाल – बच्चा हुआ , तो क्या होगा ? सोंठ , गुड़ , तेल , कुछ भी तो नहीं है घर में ! ‘ ‘ सब कुछ आ जाएगा । भगवान् दें तो ! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं , वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे । मेरे नौ लड़के हुए , घर में कभी कुछ नहीं था ; मगर भगवान् ने किसी – न न – किसी तरह बेड़ा पार लगा ही दिया । ‘
जिस समाज में रात – दिन मेहनत करने वालों की हालत अच्छी नहीं थी , और किसानों के मुकाबले में वो लोग , जो किसानों की कमजोरियों का फ़ायदा उठाना जानते थे , कहीं ज़्यादा दौलतमंद थे , वहाँ इस तरह की सोच और ख़याल का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात नहीं थी । हम तो कहेंगे , घीसू किसानों से कहीं ज़्यादा समझदार और परवाह करने वाला था . जिन किसानों में सोचने समझने की शक्ति ख़त्म हो गई थी उनके ग्रुप में शामिल होने के बजाय वो बैठकबाजों की बदनाम मण्डली में जा मिला था ।
हाँ , उसमें यह शक्ति नहीं थी , कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता । इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के हेड और मुखिया बने हुए थे , घीसू पर सारा गाँव उँगली उठाता था । फिर भी उसे यह पूरा यकीन था कि अगर वह फटेहाल है तो कम – से – कम उसे किसानों के जैसे जी – तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती , और उसके भोलेपन और बेबसी का दूसरे लोग गलत फ़ायदा तो नहीं उठाते ! दोनों आलू निकालकर उसे गरमागरम खाने लगे ।
Kaidi Book Summary In Hindi | Munshi Premchand | क़ैदी सारांश हिंदी में
कल से कुछ नहीं खाया था । उनमें इतना सब्र भी न था कि उसे ठण्डा हो जाने दें । इस वजह से कई बार दोनों की ज़बान भी जल गयीं । छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान , हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा भलाई इसी में थी कि वह पेट के अन्दर पहुँच जाए । वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफ़ी सामान थे । इसलिए दोनों उसे जल्दी – जल्दी निगल जाते । हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल रहे थे।
घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी , जिसमें बीस साल पहले वह गया था । उस दावत में उसे जो संतुष्टि और तृप्ति मिली थी , वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक़ बात थी , और आज भी उसकी याद ताज़ा थी , वो बोला- ” मैं वह दावत नहीं भूलता । तब से लेकर आज तक उस तरह का लज़ीज़ और भरपेट खाना नहीं मिला । लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडियाँ खिलाई थीं , सबको ! छोटे – बड़े सबने पूडियाँ खायीं और वो भी असली घी की ! चटनी , रायता , तीन तरह के सूखे साग , एक रसेदार सब्ज़ी , दही , चटनी , मिठाई , अब क्या बताऊँ कि उस दावत में क्या स्वाद मिला , कोई रोक – टोक नहीं थी , जो चीज़ चाहो , माँगो , जितना चाहो , खाओ । लोगों ने ऐसे खाया , ऐसे खाया , कि किसी से पानी भी नहीं पिया गया । मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म – गर्म , गोल – गोल घी की सुंगंध से भरी कचौडियाँ डालते जा रहे थे ।
कोई मना करता कि और नहीं चाहिए , पत्तल पर हाथ रोक लेता तब भी वो दिये जाते और जब सबने खाना ख़त्म कर मुँह धो लिया , तो पान – इलायची भी मिली । मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी ? मुझे से तो खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था । मैं तो चटपट जाकर अपने कम्बल में घुस गया । ऐसा दिल – दरियाव था वह ठाकुर ! माधव ने इतने सारे स्वादिष्ट खाने का मन – ही – मन मजा लेते हुए कहा- ” अब हमें कोई ऐसी दावत नहीं खिलाता ” । ‘ अब कोई क्या खिलाएगा ? वह जमाना दूसरा था ।
‘अब तो सब कम से कम ख़र्च करना चाहते हैं । शादी – ब्याह में खर्च मत करो , अंतिम संस्कार में खर्च मत करो । ज़रा कोई पूछो उनसे कि गरीबों का माल बटोर – बटोरकर कहाँ रखोगे ? बटोरने में तो कमी नहीं है । हाँ , खर्च करते वक़्त कमी सूझती है ! ‘ ‘ तुमने बस बीस पूरियाँ खायी होंगी ? ‘ ‘ बीस से ज़्यादा खायी थीं ! ‘ ‘ मैं पचास खा जाता ! ‘ ‘ पचास से कम मैंने न खायी होंगी । अच्छा पका था । तू तो मेरा आधा भी नहीं है । ‘ आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं बुझी हुई आग के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो गए जैसे दो बड़े – बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों । और बुधिया अभी तक कराह रही थी ।
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सवेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा , तो उसकी पत्नी बिलकुल ठण्डी पड़ चुकी थी । उसके मुंह पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं । आँखें जैसे पत्थर की हो गई हों और वो ऊपर की ओर देख रही थी । पूरा शरीर धूल से लथपथ था । उसके पेट में बच्चा मर गया था । माधव भागा हुआ घीसू के पास आया । फिर दोनों जोर – जोर से हाय – हाय करने और छाती पीटने लगे । पड़ोस वालों ने यह रोना – धोना सुना , तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे । मगर ज़्यादा रोने – पीटने का समय नहीं था । कफ़न की और लकड़ी की फ़िक्र करनी थी । घर में तो पैसा इस तरह गायब था , जैसे चील के घोंसले से माँस ? बाप – बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये । वह इन दोनों की सूरत से भी नफ़रत करते थे ।
वो कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट भी चुके थे , चोरी करने के लिए , वादा कर काम पर न आने के लिए । उन्होंने पूछा- ” क्या है बे घिसुआ , रोता क्यों है ? आजकल तो तू कहीं दिखाई भी नहीं देता ! मालूम होता है , इस गाँव में रहना नहीं चाहता ” । घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा- ” सरकार ! बड़ी तकलीफ़ में हूँ । माधव की घरवाली गुजर गयी । रात – भर तड़पती रही सरकार ! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे । दवा – दारू जो कुछ हो सका , सब कुछ किया , लेकिन फिर भी वह हमें धोखा दे गयी । अब तो हमें कोई एक रोटी देने वाला भी नहीं रहा मालिक ! हम तबाह हो गये । हमारा घर उजड़ गया । आपका गुलाम हूँ , अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा ।
हमारे हाथ में तो जो कुछ था , वह सब तो दवा – दारू में चला गया । सरकार की दया होगी , तो उसकी लाश उठेगी । आपके सिवा किसके दरवाज़े पर जाऊँ ” । जमींदार साहब बहुत दयालु थे मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना जैसा था । उनके जी में तो आया कि कह दें , ” चल , दूर हो यहाँ से । यों तो बुलाने से भी नहीं आता , आज जब ज़रुरत पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है । निकम्मा कहीं का , बदमाश ! ” लेकिन यह गुस्सा करने का या सज़ा देने का मौक़ा नहीं था । जी में कुढ़ते हुए उन्होंने दो रुपये निकालकर उसकी ओर फेंक दिए मगर हमदर्दी का एक शब्द भी उनके मुँह से नहीं निकला । उन्होंने घीसू की तरफ देखा तक नहीं । उनके लिए ऐसा था जैसे उन्होंने सिर का कोई बोझ उतार दिया हो । जब जमींदार साहब ने दो रुपये दे दिये , तो गाँव के बनिये – महाजनों की मना करने की कहाँ हिम्मत होती ? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था । किसी ने दो आने दिये , किसी ने चार आने ।
एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी । कहीं से अनाज मिल गया , कहीं से लकड़ी और दोपहर में घीसू और माधव बाज़ार कफ़न लाने चल दिए । इधर लोग बाँस – वाँस काटने लगे थे । गाँव की नर्मदिल औरतें आ – आकर लाश देखती और उसकी बेबसी पर दो बूंद आँसू बहाकर चली जाती । बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला- ” उसे जलाने भर की लकड़ी तो मिल गयी है , क्यों माधव ! ” माधव बोला- ” हाँ , लकड़ी तो बहुत है , अब कफ़न चाहिए ” । ‘ तो चलो , कोई हलका – सा कफ़न ले लें । ‘ ‘ हाँ , और क्या ! लाश उठते – उठते रात हो जाएगी ।
रात को कफ़न कौन देखता है ? ‘ ‘ कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले , उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए । ‘ ‘ कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है । ‘ ‘ और क्या रखा है ? यही पाँच रुपये पहले मिलते , तो कुछ दवा – दारू कर लेते । ‘ दोनों एक – दूसरे के मन की बात समझ रहे थे । वो दोनों बाज़ार में इधर – उधर घूमते रहे । कभी इस दुकान पर गये , कभी उस दुकान पर ! तरह – तरह के कपड़े , रेशमी और सूती देखे , मगर कुछ पसंद नहीं आया । ऐसे घूमते – घूमते शाम हो गयी ।
फ़िर दोनों एक शराबखाने के सामने जा पहुँचे . वहाँ जरा देर तक दोनों दुविधा में खड़े रहे । फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा- ” साहूजी , एक बोतल हमें भी देना ” । उसके बाद थोड़ा चिकन आया , तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्ति से पीने लगे । थोड़ा पीने के बाद दोनों को नशा होने लगा । घीसू बोला- ” कफ़न लगाने से क्या मिलता है ? आखिर जल ही तो जाता । कुछ बहू के साथ तो जाएगा नहीं ” ।
माधव आसमान की ओर देखकर बोला , मानों देवताओं को अपने निर्दोष होने का साक्षी बना रहा हो- ” दुनिया का दस्तूर है , नहीं तो लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं ? कौन देखता है , परलोक में मिलता है या नहीं ! ” ‘ बड़े आदमियों के पास दौलत है , वो फूंके ना । हमारे पास फेंकने को है ही क्या ? ‘ ‘ लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे ? लोग पूछेगे नहीं , कफ़न कहाँ है ? ‘ घीसू हँसा- ” अबे , कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये । बहुत ढूँढा , मिले ही नहीं । लोगों को विश्वास नहीं होगा , लेकिन फिर वही रुपये भी दे देंगे ” । इस अचानक से मिले सौभाग्य पर माधव भी हंसा । बोला- ” बड़ी अच्छी थी बेचारी ! मरी भी तो हमें खूब खिला – पिलाकर ! “
दोनों आधी बोतल से ज़्यादा शराब गटक चुके थे । घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई । चटनी , अचार , कलेजियाँ । शराबखाने के सामने ही दुकान थी । माधव लपककर दो पत्तलों में सारा सामान ले आया । पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया था । अब सिर्फ थोड़े से पैसे बचे थे । दोनों उस वक्त इस तरह शान से बैठकर पूडियाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो । उन्हें न जवाब देने का खौफ था , न बदनामी की फ़िक्र । इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था यानी इससे अब उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता था । घीसू एक ज्ञानी पंडित के भाव से बोला- ” हमारी आत्मा ख़ुश और तृप्त हो रही है तो क्या उसे पुण्य नहीं मिलेगा ? ” माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर कहा – ” जरूर मिलेगा । भगवान् , तुम अन्तर्यामी हो । उसे बैकुण्ठ ले जाना ।
हम दोनों दिल से आशीर्वाद दे रहे हैं । आज जो खाना मिला है वह उम्र – भर नहीं मिला था ” । एक पल के बाद माधव के मन में एक शंका जागी । बोला- ” क्यों दादा , हम लोग भी एक – न – एक दिन वहाँ जाएँगे ही ? ” घीसू ने इस भोले – भाले सवाल का कुछ जवाब नहीं दिया । वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा नहीं डालना चाहता था । ‘ अगर वहाँ हम लोगों से पूछा गया कि तुमने कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे ? ‘ ‘ कहेंगे तुम्हारा सिर ! ‘
‘ पूछेगी तो जरूर ! ‘ ‘ तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न नहीं मिलेगा ? तू मुझे ऐसा गधा समझता है क्या ? मैं क्या साठ साल दुनिया में घास खोदता रहा हूँ ? उसे कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा ! ‘ माधव को विश्वास नहीं हुआ , वो बोला- ” कौन देगा ? रुपये तो तुमने चट कर दिये । वह तो मुझसे पूछेगी , उसकी माँग में तो सिंदूर मैंने डाला था ” । ‘ कौन देगा , बताते क्यों नहीं ? ‘ ‘ वही लोग देंगे , जिन्होंने अब तक दिया है । हाँ , इस बार रुपये हमारे हाथ नहीं आएंगे । ‘ ‘ जैसे – जैसे अँधेरा बढ़ता जा रहा था और सितारों की चमक तेज हो रही थी , शराबखाने की रौनक भी बढ़ती जा रही थी । कोई गा रहा था , कोई डींग मार रहा था , कोई अपने साथी के गले लिपटा जाता था ।
कोई अपने दोस्त के मुँह में जाम का कुल्हड़ लगा देता था । वहाँ के माहौल और हवा में ही नशा भरा हुआ था । कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे । शराब से ज़्यादा वहाँ की हवा उन पर नशा करती थी । जीवन की मुश्किलें उन्हें यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए वो सब भूल जाते थे कि वे जिंदा हैं या नहीं । और दोनों बाप -बेटे अब भी मजे ले – लेकर चुसकियाँ ले रहे थे । सबकी निगाहें उनकी ओर जमी हुई थीं । दोनों कितने भाग्यशाली हैं ! उनके बीच में पूरी एक बोतल शराब रखी है।
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भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडियों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया , जो खड़ा उनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था . किसी को कुछ देने का गर्व , आनन्द और ख़ुशी वो पहली बार अपने जीवन में महसूस कर रहा था । घीसू ने कहा- ” ले जा , खूब खा और आशीर्वाद दे ! जिसकी कमाई है , वह तो मर गयी । मगर तेरा आशीर्वाद उसे ज़रूर पहुँचेगा ।
रोम – रोम से आशीर्वाद देना , बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं ! ” माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा- ” वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा , बैकुण्ठ की रानी बनेगी ” । घीसू खड़ा हो गया और जैसे खुशियों की लहरों में तैरता हुआ बोला- ” हाँ , बेटा बैकुण्ठ में जाएगी । उसने कभी किसी को सताया नहीं , किसी को दबाया नहीं । मरते – मरते भी हमारी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी इच्छा पूरी कर गयी । वह बैकुण्ठ नहीं जाएगी तो क्या ये मोटे – मोटे लोग जाएँगे , जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं , और फ़िर अपने पाप धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं ? “
श्रद्धा और इज्ज़त का यह रंग तुरन्त ही बदल गया । नशे की यही तो ख़ासियत होती है , भावनाएं पल – पल रंग बदलती हैं । अब दोनों बाप बेटे को दु : ख और निराशा का दौरा उठा था । माधव बोला- ” मगर दादा , बेचारी ने ज़िन्दगी में बड़ा दु : ख भोगा । कितना दुःख झेलकर मरी वो ! ” वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा । चीखें मार – मारकर । घीसू ने समझाया- ” क्यों रोता है बेटा , खुश हो कि वह माया – जाल से आज़ाद हो गयी , जंजाल से छूट गयी । बड़ी भाग्यवान थी , जो इतनी जल्द माया – मोह के बन्धन तोड़ दिये ” । और दोनों खड़े होकर गाने लगे- ‘ ठगिनी क्यों नैना झमकावे ! ठगिनी ….. ” पियक्कड़ों की आँखें उनकी ओर लगी हुई थीं और ये दोनों मस्त मगन होकर गाये जा रहे थे । फिर दोनों नाचने लगे । उछले भी , कूदे भी । गिरे भी , मटके भी । भाव भी बताये , एक्टिंग भी की और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े ।
ये कहानी हमें क्या सिखाती है –
मुंशी प्रेमचंद जी की यही तो ख़ासियत थी , वो बड़े हल्के – फुल्के अंदाज़ में ऐसी बातें सामने रख देते थे जो आत्मा को झकझोड़ देती है , हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं . अब इस कहानी को ही देख लीजिए किस तरह उन्होंने समाज की हकीकत को बयान किया है . उन्होंने बताया है कि समाज में अमीर और गरीब के बीच फैली इस असामनता ने कैसे दोनों बाप बेटे को भावना हीन कर दिया था . जहां अमीर दोनों हाथों से अनाब शनाब पैसा कमा रहे थे वहीं गरीबों को दिन रात जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी मुश्किल से दो वक़्त की रोटी नसीब होती थी।
उनका पूरा जीवन यूहीं तड़पते और तरसते हुए ख़त्म हो जाता था . कितने दुःख की बात है कि जिंदा लोग खाने और कपड़े को तरसते हैं , तब उन्हें कुछ नहीं मिलता लेकिन मरने के बाद लोग कफ़न उड़ाने ज़रूर आ जाते हैं . गरीबी ने घीसू और माधव के अंदर की हर भावना और इंसानियत को ख़त्म कर दिया था . जिंदगी की कड़वी सच्चाई यही है कि भूख के सामने दूसरी भावनाएं दम तोड़ने लगती हैं . उन दोनों ने भी कफ़न के लिए इक्कट्ठे किए हुए पैसे से कफ़न नहीं ख़रीदा बल्कि अपनी भूख शांत की . जिस औरत ने जीते जी उनका इतना ख़याल रखा , यहाँ तक कि मरने के बाद भी उन्हें भरपेट खाना दे गई , उसके गुज़र जाने से
उन्हें ज़रा भी तकलीफ़ नहीं हो रही थी . उन्होंने अंत तक उसके लिए कफ़न नहीं ख़रीदा . वो किसी भी तरह पैसों को ज़्यादा से ज़्यादा दिनों तक बचाना चाहते थे . घीसू समझदार था मगर किसानों की तरह जी तोड़ मेहनत नहीं करना चाहता था क्योंकि समाज में ऐसा सिस्टम बना हुआ था कि इतनी मेहनत करने के बाद भी उन्हें जो कुछ मिलता था वो ख़र्च हो जाता था , बचाना तो दूर की बात थी और संघर्ष का यही अंतहीन सिलसिला चलता जा रहा था . वो ग़रीब ही बने हुए से वो आलसी और कामचोर बन गए थे . हाँ , कुछ हद तक वो दोनों गलत थे लेकिन समाज का भी इसमें बहुत बड़ा हाथ है . जब तक समाज में ये असामनता बनी रहेगी तब तक इंसानियत यूं ही मरती रहेगी।
दोस्तों इसी असामनता औऱ अज्ञानता को मिटाने के लिये तो हम नई नई संमरी लेके आते रहते है।आपको हमारी ये संमरी कैसी लगी जरूर बताएं।
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Good summary
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